Friday, October 2, 2009


प्यारे दोस्तों आप भी सोच रहे होंगे के मैं इतने दिनों से कहाँ गायब हूँ। क्या करू काम ज़्यादा था, आपसे मिलने का वक्त नही मिला। कई दिनों से दिल की बातों से कागज़ काले करने का मौका भी नही मिल रहा था। पर कल मैंने एक नयी ग़ज़ल लिखी। अच्छा ज़्यादा भूमिका बाँध कर आपको बोर नही करुँगी। लीजिये सुनिए -


तू अपने रंग ढंग बदलता तो किस तरह

सूरज भला पच्छिम से निकलता तो किस तरह

हम जल के फ़ना हो गए उल्फत की आग में

पत्थर का तेरा दिल है पिघलता तो किस तरह

हर दर्द को रोका है तबस्सुम के बाँध से

दरिया मेरी आंखों से उबलता तो किस तरह

जिसने खिलौने बेच कर बचपन बिता दिया

दिल उसका खिलौनों को मचलता तो किस तरह

इतनी थी जिम्मेदारियां कांधों पे ऐ 'नसीम'

अपना कोई अरमान निकलता तो किस तरह

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