Tuesday, September 15, 2009


प्रिय दोस्तों

आप में से बहुत से लोग उन खेतों से होकर कभी ना कभी ज़रूर गुजरें होंगे जिनमे फसल कट चुकी होती है। फसल कट जाने के बाद कुछ ठूंठ ज़मीन में रह जाती हैं। इन ठूंठ भरे खेतों से होकर कोई गुज़रे तो ये ठूंठ कभी पैरों में गड़ती हैं, कभी कपडे फंसा लेती हैं। दरअसल ये आपको चोट नही पंहुचाना चाहतीं पर आपको रोक कर शायद कुछ कहना चाहती हैं। शायद अपने बीते वक्त की तरफ़ आपका ध्यान दिलाना चाहती हैं। शायद बताना चाहती हैं की ये खेत भी कभी हरे भरे थे, लहलहाते थे, मुस्कुराते थे। शायद आपको कुछ बताने की कोशिश में ख़ुद लौटना चाहती हैं अपने बीते हुए कल में। ये ठूंठ ही नही, पल भर को ही सही पर शायद हम सभी उन दिनों की तरफ़ लौटना चाहते हैं, जिन खूबसूरत दिनों को सबसे छुपा कर दिल के किसी कोने में आज भी जिंदा रक्खा है। चलिए अब ज्यादा फिलोसॉफी नही, कुछ शेरो-शायरी भी हो जाए। मेरी ताज़ा ग़ज़ल, जो मैंने कल रात लिखी, आपको सुनाती हूँ।


फ़िर उसी शख्स से मिलने की तमन्ना है मुझे

फ़िर उसी आतिशे-उल्फत में सुलगना है मुझे

प्यार की आग में ये जिस्म फना हो जाए

रूह बन कर तेरी रग-रग में उतरना है मुझे

रस्मे-दुनिया को निभाया है बहुत दूर तलक

अब ज़माने के रिवाजों को बदलना है मुझे

मुझको नाकामियाँ मजबूर नहीं कर सकतीं

ठोकरें खा के भी हर गाम संभालना है मुझे

गुम ना हो जायें कहीं लफ्ज़-ओ-ख्यालात मेरे

शोर के बीच से खामोश निकलना है मुझे

रोज़ कहता है समंदर में डूबता सूरज

कल पहाडों की बुलंदी पे उभरना है मुझे

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