Sunday, September 13, 2009



प्यारे दोस्तों


नमस्ते


एक शाम एक पार्टी में कुछ लोगों से मुलाकात हुई। जर्नलिस्ट हूँ इसलिए शायद आदत सी हो गई है हरेक को गहराई से जानने की, हरेक को समझने की। मैं बहुत सारे लोगों की बहुत सी बातें सुन रही थी, गुन रही थी। पार्टी जोरदार थी। हर आदमी अपने को दूसरे से बड़ा दिखाने की कोशिश में लम्बी लम्बी हांकने में लगा था। किसी के हाथ में जाम था कोई सॉफ्ट ड्रिंक से काम चला रहा था। कोई अपने बिसनेस के चक्कर में दूसरे पर डोरे डालता दिख रहा था, कोई किसी खूबसूरत महिला के सामने ख़ुद मुह मियाँ मिट्ठू बनने की कोशिश में उसके काँधे पर झुका जा रहा था। दरअसल हर आदमी किसी की तलाश में था, हर नज़र कुछ ढूंढ रही थी, हर हाथ जैसे खाली था, हर आदमी भिखारी था पर राजा होने की एक्टिंग भरपूर कर रहा था। उस पार्टी में, जो की एक मिनिस्टर साहब के बंगले पर आयोजित की गई थी, वहाँ मुझे मेरे जैसा कोई नही नज़र आया था, वहाँ मेरे पास किसी से कहने को कुछ भी नही था पर वहाँ देखने, सुनने और समझने को बहुत कुछ था। आधी रात के करीब जब मैं घर वापस लौटी तो उस रात पार्टी का जो अनुभव मैंने अपनी डायरी में लिखा था, वो आज आप सबसे शेयर करने का मन कर रहा है। दरअसल ऐसे अनुभव मैं हमेशा काव्य के रूप में कागज़ पर उतारती हूँ तो उस रात भी कुछ यूँ लिखा था -


शाम ढलते ज़रा सी चढा लीजिये


फ़िर फलक पर सितारे लगा लीजिये


कौन रोशन करेगा शम्मा जीस्त की


ख़ुद जला लीजिये ख़ुद बुझा लीजिये


छोड़ आए थे इक रोज़ तनहा जिन्हें


हों अकेले तो उनको बुला लीजिये


लुट ना जायें ये गम के खजाने कहीं


अपनी पलकों के मोती छुपा लीजिये


पूछ बैठे कोई हाले-दिल आपसे


तो लबों पर तबस्सुम सजा लीजिये


हो जो बेचैन दिल तो किसी कब्र पर


आरजुओं की चादर चढा लीजिये


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