Sunday, March 14, 2010

मैं संत कैसे बन गया?

आओ दोस्तों,


आज मैं तुम्हे एक कहानी सुनती हूँ


एक गरीब आदमी था। गाँव में नदी किनारे उसके पास ज़मीन का एक छोटा सा टुकड़ा था, जिस पर वो थोडा बहुत अनाज पैदा करके अपना पेट पालता थाएक बार नदी में भयानक बाढ़ आईउस गरीब आदमी की ज़मीन को नदी निगल गईपेट भरने का साधन भी चला गयावो गाँव में भीख मांगने लगा, लेकिन गाँव के लोग भी गरीब ही थे, कब तक उसको खिलाते? उन्होंने उससे कहा, 'जा गाँव के बाहर सेठजी के द्वारे बैठ, सेठानी तरस खा के दो रोटी तो फेंक ही देगी तेरे आगे।' वो चल दिया। सुबह से भूखा था। सेठजी के द्वारे पहुँचते पहुँचते भूख बेतहाशा बढ़ गई


उसने दरवाज़े पर पुकार लगाईं, 'सेठानी बहुत दूर से आया हूँ, बहुत भूखा हूँ, दया करके दो रोटी दे दो।'


सेठानी भीतर से बोली, 'बैठो बाहर, देती हूँ थोड़ी देर में।'


गरीब ने मन ही मन सेठानी को दुआ दी, 'कितनी भली महिला हैगाँव में तो सब दुत्कार कर द्वारे से ही भगा देते थे।'


आधा घंटा हो गया पर सेठानी रोटी ले कर दरवाज़े पर नहीं आईभूख बहुत जोर की लगी थीअंतड़ियाँ ऐंठ रही थींगरीब ने फिर आवाज़ लगाईं, 'सेठानी बहुत भूखा हूँ, दूर से आया हूँ, दो रोटी दे दो।'


अन्दर से आवाज़ आई, 'बैठो थोड़ी देर अभी देती हूँ।'


गरीब घुटने पेट से जोड़ कर बैठ गयाडेढ़ घंटा बीत गया, रोटी नहीं मिलीमुंह सूख कर छोटा सा हो गया थाउसने ताकत जोड़ कर फिर आवाज़ लगाईं, 'सेठानी बहुत भूखा हूँ, एक रोटी ही दे दो।'


सेठानी ने जवाब दिया, उतावले हो, अभी देती हूँ।'


चार घंटे बीत गए। भूख अपनी चरम पर पहुँच चुकी थीमुंह से आवाज़ भी नहीं निकल रही थीघुटनों को पेट में दबाये उसने ताकत इकठ्ठा करके मिमियाती आवाज़ में कहा, 'सेठानी आधा टुकड़ा ही फेंक जाओअंतड़ियाँ ऐंठ रही है।'


सेठानी चिल्लाई, 'कहा बैठो अभी देती हूँ।'


छः घंटे गुज़र गएगरीब को अब कोई आशा नहीं रही रोटी कीमन ने मान लिया अब रोटी नहीं मिलेगीदिमाग ने पेट को समझाया की अब रोटी नहीं मिलेगीअंतड़ियों ने अपनी ऐंठ छोड़ दीधीरे धीरे गरीब ने अपने घुटने सीधे किये। उसको महसूस हुआ की अब भूख भी नहीं लग रही हैदरअसल भूख लगने का वक़्त बीत चूका थावह उठा। चुपचाप जंगल की तरफ चल दिया। वहां बरगद के पेड़ के नीचे वो रोज़ सोया करता थाउस दिन वो बिना कुछ खाए ही सो गयादूसरे दिन वो रोटी की उम्मीद में फिर सेठानी के दरवाज़े पर पहुंचाउस दिन भी कई घंटे इंतज़ार के बाद उसको रोटी नसीब नहीं हुईलगातार पांच दिन यही क्रम चलापांच दिनों के बाद उसके पेट ने रोटी की मांग भी बंद कर दीअब वो जब मन करता जंगल में बरगद के नीचे जमी घास या काई को खुरच कर खा लेता और बरगद के नीचे बैठा रहता। सर्दी गर्मी बरसात बीत गईसाल गुज़र गयाधीरे धीरे जंगल के आस पास के गाँव में चर्चा फैलने लगी के बूढ़े बरगद के नीचे जो आदमी रहता है, वो बिना खाए पिए जिंदा हैहवा उड़ने लगी - ज़रूर कोई पंहुचा हुआ हैतभी तो बिना खाए पिए जिंदा हैधीरे धीरे लोग उसको देखने आने लगेउसके चारो तरफ भीड़ लगने लगीलोग उसको पंहुचा हुआ पीर मान कर उसका दर्शन करने दूर दूर से आने लगेकोई फल लाता, कोई रुपया पैसा चढ़ाता, कोई मिठाइयों का डिब्बा लिए आताऔर वो उन चीज़ों की तरफ नज़र भी नहीं डालताउन चीज़ों की तो अब उसे भूख ही नहीं रह गई थीएक दिन सेठानी भी उसके दर्शन करने आईवो अपने साथ बहुत सारे पकवानों की थालियाँ सजा कर लाई थी इस पंहुचे हुए संत के लिएपर 'संत' ने तो उसकी थालियों की तरफ देखा तक नहींसेठानी ने डरते डरते 'संत' से पूछा, महाराज आपको भूख नहीं लगती?'


वो बोला, 'भूख बहुत लगती थी सेठानीपर जब लगती थी तो कभी रोटी नहीं मिलीअब नहीं लगती है तो इतना कुछ मिलता है, जिसकी मुझे ज़रूरत ही नहीं हैजिस वक़्त जिस चीज़ की ज़रूरत शरीर को होती है अगर उस वक़्त वो चीज़ उसे मिल जाए तो उसका आनंद है। वरना बाद में उस चीज़ की ज़रूरत ही शेष नहीं बचतीशरीर उसे माँगना ही छोड़ देता हैमेरे शरीर ने भी रोटी मांगनी छोड़ दीसेठानी तू जो कुछ भी लाई है, वो ले जा क्योंकि अब मुझे भूख नहीं लगतीजब लगी थी तब तूने आधी रोटी भी ना फेंकी मेरे सामनेतेरी वजह से आज मैं गाँव का गरीब आदमी लोगो को संत दिखाई देता हूँलोग मुझसे अपने दुखों का उपाए पूछने आते हैं। कभी किसी ने मेरा दुःख नहीं पूछा के मैं संत कैसे बन गया?

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