आओ दोस्तों,
आज मैं तुम्हे एक कहानी सुनती हूँ।
एक गरीब आदमी था। गाँव में नदी किनारे उसके पास ज़मीन का एक छोटा सा टुकड़ा था, जिस पर वो थोडा बहुत अनाज पैदा करके अपना पेट पालता था। एक बार नदी में भयानक बाढ़ आई। उस गरीब आदमी की ज़मीन को नदी निगल गई। पेट भरने का साधन भी चला गया। वो गाँव में भीख मांगने लगा, लेकिन गाँव के लोग भी गरीब ही थे, कब तक उसको खिलाते? उन्होंने उससे कहा, 'जा गाँव के बाहर सेठजी के द्वारे बैठ, सेठानी तरस खा के दो रोटी तो फेंक ही देगी तेरे आगे।' वो चल दिया। सुबह से भूखा था। सेठजी के द्वारे पहुँचते पहुँचते भूख बेतहाशा बढ़ गई।
उसने दरवाज़े पर पुकार लगाईं, 'सेठानी बहुत दूर से आया हूँ, बहुत भूखा हूँ, दया करके दो रोटी दे दो।'
सेठानी भीतर से बोली, 'बैठो बाहर, देती हूँ थोड़ी देर में।'
गरीब ने मन ही मन सेठानी को दुआ दी, 'कितनी भली महिला है। गाँव में तो सब दुत्कार कर द्वारे से ही भगा देते थे।'
आधा घंटा हो गया पर सेठानी रोटी ले कर दरवाज़े पर नहीं आई। भूख बहुत जोर की लगी थी। अंतड़ियाँ ऐंठ रही थीं। गरीब ने फिर आवाज़ लगाईं, 'सेठानी बहुत भूखा हूँ, दूर से आया हूँ, दो रोटी दे दो।'
अन्दर से आवाज़ आई, 'बैठो थोड़ी देर अभी देती हूँ।'
गरीब घुटने पेट से जोड़ कर बैठ गया। डेढ़ घंटा बीत गया, रोटी नहीं मिली। मुंह सूख कर छोटा सा हो गया था। उसने ताकत जोड़ कर फिर आवाज़ लगाईं, 'सेठानी बहुत भूखा हूँ, एक रोटी ही दे दो।'
सेठानी ने जवाब दिया, उतावले न हो, अभी देती हूँ।'
चार घंटे बीत गए। भूख अपनी चरम पर पहुँच चुकी थी। मुंह से आवाज़ भी नहीं निकल रही थी। घुटनों को पेट में दबाये उसने ताकत इकठ्ठा करके मिमियाती आवाज़ में कहा, 'सेठानी आधा टुकड़ा ही फेंक जाओ। अंतड़ियाँ ऐंठ रही है।'
सेठानी चिल्लाई, 'कहा न बैठो अभी देती हूँ।'
छः घंटे गुज़र गए। गरीब को अब कोई आशा नहीं रही रोटी की। मन ने मान लिया अब रोटी नहीं मिलेगी। दिमाग ने पेट को समझाया की अब रोटी नहीं मिलेगी। अंतड़ियों ने अपनी ऐंठ छोड़ दी। धीरे धीरे गरीब ने अपने घुटने सीधे किये। उसको महसूस हुआ की अब भूख भी नहीं लग रही है। दरअसल भूख लगने का वक़्त बीत चूका था। वह उठा। चुपचाप जंगल की तरफ चल दिया। वहां बरगद के पेड़ के नीचे वो रोज़ सोया करता था। उस दिन वो बिना कुछ खाए ही सो गया। दूसरे दिन वो रोटी की उम्मीद में फिर सेठानी के दरवाज़े पर पहुंचा। उस दिन भी कई घंटे इंतज़ार के बाद उसको रोटी नसीब नहीं हुई। लगातार पांच दिन यही क्रम चला। पांच दिनों के बाद उसके पेट ने रोटी की मांग भी बंद कर दी। अब वो जब मन करता जंगल में बरगद के नीचे जमी घास या काई को खुरच कर खा लेता और बरगद के नीचे बैठा रहता। सर्दी गर्मी बरसात बीत गई। साल गुज़र गया। धीरे धीरे जंगल के आस पास के गाँव में चर्चा फैलने लगी के बूढ़े बरगद के नीचे जो आदमी रहता है, वो बिना खाए पिए जिंदा है। हवा उड़ने लगी - ज़रूर कोई पंहुचा हुआ है। तभी तो बिना खाए पिए जिंदा है। धीरे धीरे लोग उसको देखने आने लगे। उसके चारो तरफ भीड़ लगने लगी। लोग उसको पंहुचा हुआ पीर मान कर उसका दर्शन करने दूर दूर से आने लगे। कोई फल लाता, कोई रुपया पैसा चढ़ाता, कोई मिठाइयों का डिब्बा लिए आता। और वो उन चीज़ों की तरफ नज़र भी नहीं डालता। उन चीज़ों की तो अब उसे भूख ही नहीं रह गई थी। एक दिन सेठानी भी उसके दर्शन करने आई। वो अपने साथ बहुत सारे पकवानों की थालियाँ सजा कर लाई थी इस पंहुचे हुए संत के लिए। पर 'संत' ने तो उसकी थालियों की तरफ देखा तक नहीं। सेठानी ने डरते डरते 'संत' से पूछा, महाराज आपको भूख नहीं लगती?'
वो बोला, 'भूख बहुत लगती थी सेठानी। पर जब लगती थी तो कभी रोटी नहीं मिली। अब नहीं लगती है तो इतना कुछ मिलता है, जिसकी मुझे ज़रूरत ही नहीं है। जिस वक़्त जिस चीज़ की ज़रूरत शरीर को होती है अगर उस वक़्त वो चीज़ उसे मिल जाए तो उसका आनंद है। वरना बाद में उस चीज़ की ज़रूरत ही शेष नहीं बचती। शरीर उसे माँगना ही छोड़ देता है। मेरे शरीर ने भी रोटी मांगनी छोड़ दी। सेठानी तू जो कुछ भी लाई है, वो ले जा क्योंकि अब मुझे भूख नहीं लगती। जब लगी थी तब तूने आधी रोटी भी ना फेंकी मेरे सामने। तेरी वजह से आज मैं गाँव का गरीब आदमी लोगो को संत दिखाई देता हूँ। लोग मुझसे अपने दुखों का उपाए पूछने आते हैं। कभी किसी ने मेरा दुःख नहीं पूछा के मैं संत कैसे बन गया?
very impressive.......
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