कितनी खुश है आज औरत जेवरों कपड़ों तले
चलती फिरती लाश जैसे रेशमी कफनों तले
बंदिशों को तोड़ कर ताज़ी हवा में सांस लो
क्यों छुपा रक्खी है अपनी शख्सियत परदों तले
कितनी सदियों तक जिओगी दासता की ज़िन्दगी
कब तलक बिछती रहोगी मर्द के ज़ुल्मों तले
अपनी मंजिल खुद तलाशो अपनी राहें खुद चुनो
एक दिन आ जाएगी जन्नत तेरे क़दमों तले
क्यों तेरी तकदीर का कातिब ज़माना बन गया
क्यों दबा रक्खा है दुनिया ने तुझे रस्मों तले
जो खड़ी करता है दीवारें तुम्हारी राह में
रौंद डालो उस नियम कानून को क़दमों तले
Tuesday, March 8, 2011
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