Wednesday, February 9, 2011

प्यारे दोस्तों
बहुत दिनों से मैंने आप सबको अपनी रिपोर्ट्स के जाल में फंसा रखा है। चलिए आज तमाम गंभीर और भरी-भरकम बातों से निकल कर कुछ हलकी-फुलकी दिल की बातें की जायें। कुछ मेरी बातें जो आपको अपनी सी लगे। कुछ आपका दर्द जो मुझे लिखने को मजबूर करे। पेशे-खिदमत है मेरी दो गजलें सिर्फ आपके लिए -



कल
की सियाह रात का चर्चा किये बगैर
जायेंगे
नहीं चाँद से शिकवा किये बगैर
अब
देखिये लेते हैं वो किस किस से दुश्मनी
महफ़िल
में गए जो हम पर्दा किये बगैर
दीवानों
सी सूरत लिए फिरते हैं शहर में
मानेंगे
नहीं वो हमें रुसवा किये बगैर
क्या
क्या गज़ब हो गया काफ़िर की याद में
मस्जिद
से लौट आये हम सजदा किया बगैर
मालूम है के शेख जी तौबा के साथ साथ
रहते
नहीं हैं हुस्न का चर्चा किये बगैर
ये
शायरी नहीं है मदारी का खेल है
मिलता
नहीं है पेट को मजमा किये बगैर



आपकी
याद को सीने से लगाना होगा
ना
सही ईद, मुहर्रम तो मानना होगा
जाने
कब मोड़ दे तकदीरे-कलम बाद-ए-जुनूं
राख के ढेर में शोलों को बचाना होगा
आज
गुजरी है निगाहों से जो सूरत उनकी
आज
फिर रात को अश्कों से सजाना होगा
पूछ
आऊं के जुदा होके पशेमाँ तो नहीं
फिर
मुलाक़ात का इक और बहाना होगा
आज
गर आपने बाहों का सहारा दिया
कल
मुझे देखिये काँधे पे उठाना होगा

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