खुली आँखों से मैं सपना सुनहरा देख सकती हूँ
और आंखें बंद कर के भी वो चेहरा देख सकती हूँ
मैं सारी बंदिशों को इल्म की ताकत से तोडूंगी
अभी हर ख्वाब पे दुनिया का पहरा देख सकती हूँ
ना कुदरत से करो खिलवाड़ इतना ऐ ज़मी वालों
मैं गुलशन में खड़ी हूँ और सहरा देख सकती हूँ
तेरी इन सुर्ख आँखों की वजह ऐ दोस्त क्या पूछूँ
तेरे दिल पर लगा है घाव गहरा देख सकती हूँ
ये तेवर वक़्त के देखो के रोशन थी हवेली कल
लगा है आज भूतों का बसेरा देख सकती हूँ
Wednesday, January 5, 2011
Subscribe to:
Post Comments (Atom)
No comments:
Post a Comment